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۲۰۰۲ میں جون ایلیا کی وفات کے بعد شائع ہوا عطا الحق قاسمی کا مضمون |
सन 2002 में जौन एलिया की वफ़ात के बाद ताज़ियती मज़ामीन का एक सिलसिला हिन्द ओ पाक के अखबारों और सफ़े अव्वल के अदबी जरीदों में जारी रहा। ये मज़मून भी उसी सिलसिले की एक कड़ी है । अज़ीम अमरोहवी का शुमार रिसाई अदब के मशहूर ओ मारूफ़ शायरों में होता है । जदीद मरसिए में उनका तहक़ीक़ी काम भी हिन्द ओ पाक में उनकी शोहरत का सबब हुआ है । जौन एलिया के उनसे बोहोत क़रीबी मरासिम रहे हैं । मेरी अज़ीम साहब से जौन एलिया के हवाले से अक्सर गुफ़्तुगु रहती है । अभी हाल ही में उन्होने जौन एलिया से मुताल्लिक़ काफ़ी सारा मवाद फ़राहम किया । ये मज़मून भी उसी का हिस्सा है । मैं इसके लिए उनका तहे दिल से ममनून ओ मशकूर हूँ । मारूफ़ शायर और कालम निगार अताउल हक़ क़ास्मी के लिखे इस मज़मून का अस्ल मत्न उर्दू में हैं । यहाँ हिन्दोस्तान में जौन एलिया के बोहोत से ऐसे चाहने वाले हैं जिनहे उर्दू रस्मुल ख़त पढ़ने में परीशानी का सामना करना पड़ता है । उनही के लिए ये मज़मून देवनागरी रस्मुल ख़त के साथ पेश कर रहा हूँ ।
" दोहा क़तर में मुक़ीम एक मुमताज़ सकाफ़्ती शख़्सियत अब्दुल हमीद अल्मिफ़्तह की रिहाइश गाह में दाख़िल होते ही एक लंबे बालों वाली दुबली पतली सी चीज़ ने मुझ पर छलांग लगाई और मुझे संभलने का मौक़ा दिये बग़ैर अपनी पतली पतली टांगें मेरी कमर में पेवस्त करदीं और अपने बाज़ूऔं में मुझे जकड़ लिया । इसके साथ ही मेरे कानों में जानी पहचानी आवाज़ सुनाई दी "आल हक़' तुझे जूते मरूँगा " । ये जौन एलिया थे । मुझसे अपने प्यार का इज़हार इसी तरह किया करते थे । वो मुझे अता उल हक़ की बजाए हमेशा आल हक़ कहते। ये एक साहिबे उसलूब शख़्सियत ही नहीं बेहद मुनफ़रिद इंसान भी थे। दोहा वाली मुलाक़ात में भी उनकी शख़्सियत के ये पहलू सामने आते रहे । खाने के लिए डाइनिंग टेबल की तरफ़ जाते हुये उन्होने फ़रमाइश की कि वो मेरे कंधों पर सवार होकर डाइनिंग टेबल पर जाएंगे । उन्होने अब्दुल हमीद अल्मिफ़्तह को तस्वीर बनाने के लिए कहा और फिर वो सुकून से खाने की मेज़ पर बैठ गए लेकिन मेंने महसूस किया कि खाना तो उन्होने बराये नाम खाया अलबत्ता आध पाओ के क़रीब सुकून आवर गोलियां उन्होने अपने पेट में ज़रूर उंडेल दीं। वो एक ग़ैर मुतमइन बे क़रार और मुज़्तरिब शख़्सियत के मालिक थे जिस का इज़हार उनकी शायरी और शख़्सियत दोनों से होता था । उनकी तमाम तर शोरीदा और दार रफ़तनी उन की शायरी और शख़्सियत में पूरी तरह समाई हुई थी । जौन एलिया हमारे दौर के उन शोआरा में से नहीं थे जो अपने अनपढ़ होने को " तलमीज़ उररहमान " के पर्दे में छुपाते हैं बल्कि उन का शुमार अपने वक़्त के इंतेहाई पढे लिखे शोआरा में होता था । वो अरबी , फ़ारसी , उर्दू और कई दूसरी ज़ुबानों पर दस्तरस रखते थे । उनका मुतालेआ वसीअ और और उनका ज़हनी उफ़क़ वसीअ तर था। वो एक शायर थे जिन के ज़ाहिर और बातिन में बोहोत फ़र्क़ था लेकिन ज़ाहिर और बातिन का ये फ़र्क़ मुनाफ़ेक़त का आईनादार नहीं बल्कि
बदल कर फ़क़ीरों का हम भेस ग़ालिब
तमाशाए अहले करम देखते हैं
वाले शेर की तफ़सीर था । वो अंदर से दुखी इंसान थे और बाहर से ख़ुश तबाअ नज़र आते थे और शायद अपने और दूसरे के दुखों की कसक कम करने के लिए बाज़ ऐसी हरकतें भी करते थे जो सिक़ा हज़रात यक़ीनन पसंद नहीं करते । दुबई के मुशाएरे में उन्होने अपने जानने वाले की शेरवानी और टोपी उतरवाकर ख़ुद पहन ली और काले शीशे की ऐनक आँखों पर चढ़ाए मुशाएरा गह में घूमते रहे । उन्हे इस हइय्यत ए कज़ाई में देख कर मेरे लिए अपनी हंसी कंट्रोल करना मुश्किल हो रहा रहा था लेकिन उन के अंदर का दुख जब भी बाहर आता था तो एक सैल ए रवां की तरह होता था जो अपने साथ बोहोत कुछ बहा कर ले जाता था । मुझे याद है एक दफ़ा किसी बैरूनी मुशाएरे से वापसी पर लाहोर आने के लिए मैं जौन भाई के साथ कराची एयरपोर्ट पर उतरा तो लाउंज से बाहर दूसरी फ़्लाइट के इंतज़ार में सिर्फ़ मुझे कंपनी देने के लिए जौन एलिया मेरे साथ सीमेंट की बेंच पर बैठ गए और फिर अचानक न जाने उन्हे क्या हुआ की अपने साथ गुज़री एक वारदात बयान करते हुये उन की आँखें भीग गईं और फिर उन्होने ज़ार ओ क़तार रोना शुरू कर दिया । वो बच्चों की तरह बिलक बिलक कर रो रहे थे और मैं सोच रहा था कि ख़ुदा से गिला करूँ की ऐ रब्बे कायनात तूने इतने खूबसूरत शायर की आँखों को आंसुओं से क्यूँ भर दिया ।
मैं ज़ाती तौर पर जौन एलिया को इस दौर के चंद बड़े साहिब ए उसलूब शोआरा में शुमार करता हूँ उनका एक शेरी मजमूआ शाया हो चुका है और दूसरा "यानी" के उनवान से मुकम्मल है । जिस का पेश लफ़्ज़ इतना तावील हो गया की शायर को उसे मुकम्मल करने का मौक़ा न मिला और वो हम से अधूरी बात करके रुखसत हो गया । जौन के चंद अशआर जो मुझे फ़ौरी तौर याद आ रहे हैं मैं वो आपको सुनाना चाहता हूँ ...
हासिल ए कुन है ये जहान ए खराब
यही मुमकिन था इतनी उजलत में
कौन इस घर की देखभाल करे
रोज़ इक चीज़ टूट जाती है
इस तरह (क्या सितम ) है कि अब तेरी सूरत
याद (ग़ौर) करने पे याद आती है
ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता
एक ही शख्स था जहान में क्या
क्यूँ मुझे टोकता नहीं कोई (मुझको तो कोई टोकता भी नहीं )
यही होता है खानदान में क्या
खीरासराने इश्क़ का कोई नहीं है जुंबादार
शरा (शहर ) में इस गिरोह ने किसको खफ़ा नहीं किया
तुम भी किसी के बाब में एहेद शिकन हो गालेबन
हम ने भी एक शख्स का क़र्ज़ अदा नहीं किया
क्या मेरी फ़स्ल कट गयी हाँ मेरी फ़स्ल कट गयी
क्या वो जवां गुज़र गए हाँ वो जवां गुज़र गए
मैं भी बोहोत अजीब हूँ इतना अजीब हूँ कि बस
खुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं
जौन एलिया का यही अलमिया था जो उस ने आख़री शेर में बयान किया लेकिन कितने लोग हैं जो ख़ुद को तबाह करके शेर ओ अदब के हवाले से शोहरत ए आलम और बक़ाए दवाम की इस दुनिया में दाखिल हो सकते हैं जो जौन एलिया की मुंतज़िर है ।
(क़ाबिल ग़ौर बात ये है की क़ासमी साहब ने जौन के ज़्यादातर अशआर ग़लतियों के साथ लिखे हैं जिन्हे दुरुस्त कर दिया गया है । )
" दोहा क़तर में मुक़ीम एक मुमताज़ सकाफ़्ती शख़्सियत अब्दुल हमीद अल्मिफ़्तह की रिहाइश गाह में दाख़िल होते ही एक लंबे बालों वाली दुबली पतली सी चीज़ ने मुझ पर छलांग लगाई और मुझे संभलने का मौक़ा दिये बग़ैर अपनी पतली पतली टांगें मेरी कमर में पेवस्त करदीं और अपने बाज़ूऔं में मुझे जकड़ लिया । इसके साथ ही मेरे कानों में जानी पहचानी आवाज़ सुनाई दी "आल हक़' तुझे जूते मरूँगा " । ये जौन एलिया थे । मुझसे अपने प्यार का इज़हार इसी तरह किया करते थे । वो मुझे अता उल हक़ की बजाए हमेशा आल हक़ कहते। ये एक साहिबे उसलूब शख़्सियत ही नहीं बेहद मुनफ़रिद इंसान भी थे। दोहा वाली मुलाक़ात में भी उनकी शख़्सियत के ये पहलू सामने आते रहे । खाने के लिए डाइनिंग टेबल की तरफ़ जाते हुये उन्होने फ़रमाइश की कि वो मेरे कंधों पर सवार होकर डाइनिंग टेबल पर जाएंगे । उन्होने अब्दुल हमीद अल्मिफ़्तह को तस्वीर बनाने के लिए कहा और फिर वो सुकून से खाने की मेज़ पर बैठ गए लेकिन मेंने महसूस किया कि खाना तो उन्होने बराये नाम खाया अलबत्ता आध पाओ के क़रीब सुकून आवर गोलियां उन्होने अपने पेट में ज़रूर उंडेल दीं। वो एक ग़ैर मुतमइन बे क़रार और मुज़्तरिब शख़्सियत के मालिक थे जिस का इज़हार उनकी शायरी और शख़्सियत दोनों से होता था । उनकी तमाम तर शोरीदा और दार रफ़तनी उन की शायरी और शख़्सियत में पूरी तरह समाई हुई थी । जौन एलिया हमारे दौर के उन शोआरा में से नहीं थे जो अपने अनपढ़ होने को " तलमीज़ उररहमान " के पर्दे में छुपाते हैं बल्कि उन का शुमार अपने वक़्त के इंतेहाई पढे लिखे शोआरा में होता था । वो अरबी , फ़ारसी , उर्दू और कई दूसरी ज़ुबानों पर दस्तरस रखते थे । उनका मुतालेआ वसीअ और और उनका ज़हनी उफ़क़ वसीअ तर था। वो एक शायर थे जिन के ज़ाहिर और बातिन में बोहोत फ़र्क़ था लेकिन ज़ाहिर और बातिन का ये फ़र्क़ मुनाफ़ेक़त का आईनादार नहीं बल्कि
बदल कर फ़क़ीरों का हम भेस ग़ालिब
तमाशाए अहले करम देखते हैं
वाले शेर की तफ़सीर था । वो अंदर से दुखी इंसान थे और बाहर से ख़ुश तबाअ नज़र आते थे और शायद अपने और दूसरे के दुखों की कसक कम करने के लिए बाज़ ऐसी हरकतें भी करते थे जो सिक़ा हज़रात यक़ीनन पसंद नहीं करते । दुबई के मुशाएरे में उन्होने अपने जानने वाले की शेरवानी और टोपी उतरवाकर ख़ुद पहन ली और काले शीशे की ऐनक आँखों पर चढ़ाए मुशाएरा गह में घूमते रहे । उन्हे इस हइय्यत ए कज़ाई में देख कर मेरे लिए अपनी हंसी कंट्रोल करना मुश्किल हो रहा रहा था लेकिन उन के अंदर का दुख जब भी बाहर आता था तो एक सैल ए रवां की तरह होता था जो अपने साथ बोहोत कुछ बहा कर ले जाता था । मुझे याद है एक दफ़ा किसी बैरूनी मुशाएरे से वापसी पर लाहोर आने के लिए मैं जौन भाई के साथ कराची एयरपोर्ट पर उतरा तो लाउंज से बाहर दूसरी फ़्लाइट के इंतज़ार में सिर्फ़ मुझे कंपनी देने के लिए जौन एलिया मेरे साथ सीमेंट की बेंच पर बैठ गए और फिर अचानक न जाने उन्हे क्या हुआ की अपने साथ गुज़री एक वारदात बयान करते हुये उन की आँखें भीग गईं और फिर उन्होने ज़ार ओ क़तार रोना शुरू कर दिया । वो बच्चों की तरह बिलक बिलक कर रो रहे थे और मैं सोच रहा था कि ख़ुदा से गिला करूँ की ऐ रब्बे कायनात तूने इतने खूबसूरत शायर की आँखों को आंसुओं से क्यूँ भर दिया ।
मैं ज़ाती तौर पर जौन एलिया को इस दौर के चंद बड़े साहिब ए उसलूब शोआरा में शुमार करता हूँ उनका एक शेरी मजमूआ शाया हो चुका है और दूसरा "यानी" के उनवान से मुकम्मल है । जिस का पेश लफ़्ज़ इतना तावील हो गया की शायर को उसे मुकम्मल करने का मौक़ा न मिला और वो हम से अधूरी बात करके रुखसत हो गया । जौन के चंद अशआर जो मुझे फ़ौरी तौर याद आ रहे हैं मैं वो आपको सुनाना चाहता हूँ ...
हासिल ए कुन है ये जहान ए खराब
यही मुमकिन था इतनी उजलत में
कौन इस घर की देखभाल करे
रोज़ इक चीज़ टूट जाती है
इस तरह (क्या सितम ) है कि अब तेरी सूरत
याद (ग़ौर) करने पे याद आती है
ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता
एक ही शख्स था जहान में क्या
क्यूँ मुझे टोकता नहीं कोई (मुझको तो कोई टोकता भी नहीं )
यही होता है खानदान में क्या
खीरासराने इश्क़ का कोई नहीं है जुंबादार
शरा (शहर ) में इस गिरोह ने किसको खफ़ा नहीं किया
तुम भी किसी के बाब में एहेद शिकन हो गालेबन
हम ने भी एक शख्स का क़र्ज़ अदा नहीं किया
क्या मेरी फ़स्ल कट गयी हाँ मेरी फ़स्ल कट गयी
क्या वो जवां गुज़र गए हाँ वो जवां गुज़र गए
मैं भी बोहोत अजीब हूँ इतना अजीब हूँ कि बस
खुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं
जौन एलिया का यही अलमिया था जो उस ने आख़री शेर में बयान किया लेकिन कितने लोग हैं जो ख़ुद को तबाह करके शेर ओ अदब के हवाले से शोहरत ए आलम और बक़ाए दवाम की इस दुनिया में दाखिल हो सकते हैं जो जौन एलिया की मुंतज़िर है ।
(क़ाबिल ग़ौर बात ये है की क़ासमी साहब ने जौन के ज़्यादातर अशआर ग़लतियों के साथ लिखे हैं जिन्हे दुरुस्त कर दिया गया है । )
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