उर्दू भाषा और शाएरी का दूसरा नाम है "गालिब"। शाएरी का नाम लीजे और दिमाग़ में ग़ालिब का चुगा टोपी पहने नसीरुद्दीन शाह मस्तिष्क के पर्दे पर कोड़ियाँ खेलते नज़र आने लगते हैं । किसी ने कहा था ग़ालिब उर्दू का सबसे मुश्किल कवि था । बस, ट्रक, डंपर से लेकर शौचालयों तक ये मुश्किल वाले गालिब छपे होते हैं । ख़ैर मेरा इशू यह नहीं है । मुझे तो ग़ालिब के एक शेर को लेकर कुछ बकवास करनी है ।
तो बात यह है कि ग़ालिब का मशहूर शेर तो आपने सुना ही होगा... जी वही तग़ाफ़ुल वाला । दरअसल वहाँ ग़ालिब अपने समय की सुस्त संचार व्यवस्था पर तंज़ सूत रहे हैं । यह वह दौर था जब डाकिया का काम कबूतर किया करते थे । या फिर "नामाबर" घौड़े पर बैठ अपने नेफ़े में नामा घुसेड़ कर ले जाते थे और सफ़र की दूरी के हिसाब से रास्ते में घौड़े बदलते थे । आजकल हम बस और ट्रेन बदलते हैं ।
तो चचा ग़ालिब कह रहे हैं कि
हमने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जाएंगे हम तुमको ख़बर होने तक
अपनी महबूबा पर तो भरोसा है मगर सुस्त संचार व्यवस्था पर नहीं । मगर उस समय तो डाक विभाग था नहीं? या था? ख़ैर, अब अगर ग़ालिब के महबूबा के वियोग में टपक जाने की ख़बर कोई लेकर जाये भी तो उसको पता चलने तक ग़ालिब का चालीसवां निमट चुका होगा । मगर अब परिस्थिति बिलकुल विपरीत है । अब तो इंसटेंट मेसेजिंग का दौर है । 4जी का ज़माना है । यहाँ प्राण पखेरू उड़े वहाँ झट से व्हाट्सप ग्रुप में सूचना प्रसारित । आदमी दाह संस्कार या दफ़न से पहले ही पहुँच चुका होता है । बाज़ लोग तो दम निकलने से पहले ही सिरहने खड़े होते हैं ।
तो मेरे हिसाब से ग़ालिब का यह शेर अब रेलिवेंट नहीं है । तो क्या दीवान से निकाल दें? अरे नहीं!
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